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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 48 
देवयानी कच को जीवित देखकर प्रश्न पर प्रश्न किये जा रही थी और कच मौन रहकर उन्हें सुने जा रहा था । उसने देवयानी की ओर देखा । देवयानी ने वही साड़ी पहनी थी जो उसने उसे उपहार में दी थी । देवयानी ने श्रंगार भी किया था जो उसके रुदन के कारण मिट चुका था । देवयानी उसे कितना प्रेम करती है यह देवयानी को देखकर पता चल रहा था । कच देवयानी का प्रेम देखकर अभिभूत हो गया किन्तु उसे अपनी सीमा का भान था । वह जानता था कि देवयानी उसके आचार्य की पुत्री है और आचार्य पुत्री एक भगिनी सदृश होती है । देवयानी ने इस तथ्य को विस्मृत कर दिया था पर कच इसे कैसे विस्मृत कर सकता था ? उसे तो हिमालय की तरह अटल , अडिग खड़े रहना था । उसने अपने संकल्प को याद किया और वह निश्चय पूर्वक शांत मन से खड़ा रहा । वह देवयानी के प्रेम के भंवर में फंस गया था । शुक्राचार्य ने उसे इस संकट से उबारते हुए कहा 
"रात्रि बहुत गहरा गई है वत्स, अब तुम जाकर विश्राम करो" । 
आचार्य की वाणी ने उसे उस संकट उबार लिया । वह बिना कुछ बोले आचार्य से अनुमति लेकर अपनी कुटिया में जाने को उद्यत हुआ ही था कि देवयानी ने कहा "क्या तुम्हें ज्ञात है कि तुम जीवित कैसे हुए" ? 

कच ने इंकार की मुद्रा में सिर हिला दिया । कच के इस प्रकार इंकार कर देने से देवयानी को बहुत आश्चर्य हुआ । वह कहने लगी "तुम्हें पता होना चाहिए कच कि तुम्हारे साथ क्या हुआ था ? तुम्हारा वध किया गया था । मृत संजीवनी विद्या से ही तुम जीवित हो सकते थे । यह तो तुम्हें ज्ञात है ही कि पिता श्री के अतिरिक्त और कोई जानता ही नहीं है इस मृत संजीवनी विद्या को । उन्होंने मेरे आग्रह पर इस विद्या से  तुम्हें जीवन दान दिया है" । देवयानी की आंखों में अभिमान स्पष्ट रूप से चमक रहा था । 

देवयानी की बात सुनकर कच शुक्राचार्य के चरणों में गिर पड़ा और शुक्राचार्य की असीमित कृपा के बारे में सोचकर उसका हृदय द्रवित हो गया, कंठ अवरुद्ध हो गया और आंखों से अश्रुओं की बरसात होने लगी । उसने शुक्राचार्य के चरणों को अपने अश्रुओं से धो दिया और उन पर अपना मस्तक रख दिया । आंसुओं में डूबते हुए वह कहने लगा 

"पहले मेरा जीवन परमात्मा की देन था आचार्य, किन्तु आज से यह आपकी धरोहर है । आपने मुझे एक नया जीवन देकर मुझ पर जो उपकार किया है वह अविस्मरणीय है । आज से मैं सदैव आपके आदेशों के अध्यधीन रहूंगा । बताइये , इस समय मेरे लिए क्या आज्ञा है आचार्य" ? कच भावातिरेक के कारण सुबकने लगा था । 
"अभी रात्रि बहुत हो चुकी है कच, इसलिए अभी तो यही आज्ञा है कि तुम अपने कक्ष में जाओ और भोजन लेकर सो जाना, बाकी बातें अब हम कल करेंगे" । शुक्राचार्य ने समस्त वार्तालाप पर पूर्ण विराम लगा दिया । कच वहां से चला गया । 
कच की दुविधा और बढ गई थी । देवयानी के अनुसार देवयानी के आग्रह पर आचार्य ने उसे जीवित किया था । इस कारण उसका यह जीवन अब देवयानी की थाती बन चुका था । यदि देवयानी उसकी चिंता नहीं करती और शुक्राचार्य से उसे जीवित करने का आग्रह नहीं करती तो वह आज जीवित नहीं होता । उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर उसके पिता और माता कैसे धैर्य धारण करते ? अभी तो उसे मृत संजीवनी विद्या मिली भी नहीं है । जिस कार्य के लिए उसे यहां प्रेषित किया गया है वह तो अभी पूरा हुआ नहीं था । दैत्य सैनिकों ने इससे पहले ही उसका वध कर दिया था । आज उसे देवॠषि नारद याद आ रहे थे । उन्होंने सही कहा था कि देवयानी उसके लिए सुरक्षा कवच बन जाएगी । उनकी बात आज सही सिद्ध हुई थी । इसलिए उसे देवयानी का आभार व्यक्त करना चाहिए जिसने उसे एक जीवनदान दिलाकर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त करने की आशा जीवित रखी है । अब तो वह जब तक यहां है , उसे देवयानी को और अधिक प्रसन्न रखने का प्रयत्न करना चाहिए । 

वर्तमान परिस्थितियों पर विचार करते करते कच अपनी कुटिया पर आ गया । कच को देखकर सभी साथी बहुत प्रसन्न हुए । उसके सभी साथियों ने उसके एकाएक अंतर्धान होने पर उससे अनेक प्रश्न किये परन्तु उसने एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया और यह कहकर "मैं बहुत थका हुआ हूं, अब विश्राम करूंगा" अपनी चारपाई पर लेट गया और सो गया । 

अगले दिन वह देवयानी का आभार व्यक्त करने के लिए उसकी कुटिया पर चला गया । कच को देखकर देवयानी रातरानी सी महक गई । उसे उस समय कच के आने की कोई आशा नहीं थी अत: कच को अनायास अपने सम्मुख देखकर वह आश्चर्य से उछलते हुए बोली 
"अरे तुम ! इस समय और यहां ? सब कुशल तो है ना" ? 
"सब कुशल है, यानी । तुम कैसी हो" ? कच देवयानी को एक अनाविल गुलाब का पुष्प देते हुए बोला । 

कच का "यानी" कहकर बुलाना देवयानी को बहुत भाता था । जब जब कच "यानी" कहता था तब तब देवयानी का हृदय प्रफुल्लित हो जाता था । आज तो कच एक अनाविल गुलाब भी लेकर आया था । देवयानी को गुलाब बहुत रुचिकर लगते थे । और अनाविल गुलाब की तो वह दीवानी थी । जितने कोमल उसके कपोल थे अनाविल गुलाब की पंखुड़ियां भी उतनी ही कोमल थीं । उसने जब गुलाब की पंखुड़ियों को छूकर देखा और उन्हें अपने कपोलों से लगाया तो वह असमंजस में पड़ गई कि दोनों में ज्यादा कोमल कौन है ? तत्पश्चात उसने वह गुलाब अपने अधरों से लगा लिया । गुलाब और अधरों का रंग एक जैसा था । पता ही नहीं लग रहा था कि अधरों ने लाल रंग लाल गुलाब से चुराया था या लाल गुलाब ने अपना लाल रंग देवयानी के अधरों से उधार लिया था । देवयानी द्वारा गुलाब को अपने अधरों से छुआने का अर्थ यह था कि वह कच के लिए एक संदेश देना चाहिए रही थी किन्तु कच निपट अनाड़ी निकला और उसके संकेतों को समझते हुए भी ना समझने का अभिनय करता रहा । अपने संकेत का प्रत्युत्तर न पाकर देवयानी हतोत्साहित हुई अवश्य परन्तु उसने आशा का दामन छोड़ा नहीं था । उसने कच को वृषभ सदृश बड़ी बड़ी आंखों में देखा । वह कच की उन विशाल आंखों में डूब जाना चाहती थी परन्तु कच ने उसे यहां पर भी डूबने का अवसर नहीं दिया और उसने अपनी दृष्टि नीचे कर ली । कच देवयानी का आभार व्यक्त करते हुए कहने लगा 
"तुमने मुझे एक नया जीवन देकर सदा के लिए अपना ऋणी बना लिया है यानी , मैं तुम्हारा हृदय के गहनतम तल से हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं" । कच ने देवयानी के समक्ष अपने दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में जोड़ दिये । 
"अरे अरे , ये क्या कर रहे हो तुम ? हाथ जोड़कर मुझ पर यह पाप मत चढाइये । मैं तो आपसे बहुत छोटी हूं , हाथ जोड़कर ऐसा अनर्थ मत कीजिए । आपका इस तरह प्रणाम करना मुझे अच्छा नहीं लगता है । तुम मुझे वचन दो कि भविष्य में फिर कभी ऐसा नहीं करोगे । और हां, मैंने तुम्हारे लिए बड़ी स्वादिष्ट तस्मै बनाई है । मुझे ज्ञात है कि तुम्हें तस्मै अति प्रिय है इसलिए यहां आकर बैठो और तस्मै खाकर बताओ कि वह कैसी बनी है" ? देवयानी के अंग अंग से प्रेम की बौछार हो रही थी । 

तस्मै की बात पर कच को घोर आश्चर्य हुआ इसलिए उसने पूछ लिया । "क्या तुम्हें ज्ञात था कि मैं यहां आऊंगा" ? वह जानना चाहता था कि देवयानी को कैसे पता चला कि वह यहां आयेगा ? 
"हां, मुझे ज्ञात था" । देवयानी उसे आसन पर बैठाते हुए बड़े प्रेम से बोली ।
"कैसे ज्ञात था" ? कच की आंखों में जानने की जिज्ञासा थी । "मेरा हृदय कह रहा था कि तुम यहां आओगे, और तुम आ गये । मेरा हृदय कभी असत्य नहीं बोलता है" । देवयानी मुस्कुराते हुए उसे खीर परोसने लगी । 
"अच्छा ! और क्या कहता है तुम्हारा हृदय ? हमें भी तो पता चले" ? कच ने खीर खाने के लिए खीर का बर्तन "संपुट" उठाते हुए कहा । 
"रुको , एक पल रुको ना । वह संपुट नीचे रख दो" । देवयानी अधिकार पूर्वक बोली । 

कच कुछ समझ नहीं पाया कि देवयानी ने उसे तस्मै खाने से क्यों रोक दिया है ? उसने देवयानी की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा । 

इतने में देवयानी उसके समीप ही एक "चटाई" पर बैठ गई । उसने खीर का संपुट अपने हाथ में ले लिया और वह अपने हाथों से कच को खीर खिलाने लगी । देवयानी कच की आंखों में देखे जा रही थी और उसके हाथ कच को खीर खिला रहे थे । आधी खीर भूमि पर गिर रही थी और आधी खीर कच के मुंह में जा रही थी । प्रेम की रीत ही कुछ ऐसी है कि खाने से अधिक आनंद खिलाने में आता है । देवयानी के हर्ष की कोई सीमा नहीं थी । देवयानी की अभिलाषा थी कि कच खीर खाते समय उसकी उंगलियों को काट ले । पर हाय रे दुष्ट कच ! वह कब उसे ऐसा प्रेम करेगा ? 

कच के प्रेम में देवयानी घुलने लगी थी । उसका स्वभाव बदलने लगा था । उसका अभिमान अब थोड़ा थोड़ा पिघलने लगा था । दर्प की कांति धुंधली होने लगी थी । उसकी "अकड़" अपने स्थान से हौले हौले डिगने लगी थी । अब वह मानिनी से प्रेयसी बनने की ओर अग्रसर होने लगी थी । उसके स्वभाव में विनम्रता ने घोंसला बनाना आरंभ कर दिया था । 

कच का साथ पाकर वह आसमान में उड़ने लगती थी । वह समझती थी कि कच भी उसे उतना ही प्रेम करता है जितना वह कच से करती है । उसे कच की मनोदशा के बारे में जरा सा भी भान नहीं था । वह कच की दुविधा से सर्वथा अनभिज्ञ थी । कभी कभी वह सोचती कि कच उसका चुंबन क्यों नहीं करता है ? उसे अपनी मजबूत बांहों में कसकर उसकी अस्थियां क्यों नहीं तोड़ता है ? वह समझती थी कि कच संभवत: संकोचवश ऐसा नहीं करता है । वह चाहती थी कि कभी तो कच अपनी ओर से प्रेम की पहल करे । यदि कच अपनी ओर से पहल करता तो पता नहीं देवयानी क्या कर बैठती ? कच ने सदैव ही उसके साथ संयत आचरण किया था तथापि देवयानी उसी में रम गई थी । तस्मै का आस्वादन करके कच अपनी कुटिया में चला गया था । 

समय का पंछी बहुत तेज गति से उड़ान भरता है । आश्रम में रहकर कच अपने सभी संगी साथियों से बहुत घुलमिल गया था । उसकी एक मित्रमंडली भी बन गई थी । वे लोग प्रतिदिन कंदुक क्रीड़ा किया करते थे । उन्होंने लकड़ी का एक अरित्र (बल्ला) बना लिया था और उससे कंदुक को मारा करते थे । इस क्रीड़ा में सबको बहुत आनंद आता था । 
एक दिन जब सब लोग कंदुक क्रीड़ा कर रहे थे तो कच ने कंदुक पर अरित्र से एक जोर का प्रहार किया । कंदुक उछलकर बहुत दूर आश्रम के बाहर जाकर गिरी । सब लोग कच के पीछे पड़ गए कि उसने ही कंदुक को आश्रम के बाहर भेजा है इसलिए वही इसे लेकर आएगा । कच मन ही मन दैत्य सैनिकों से भयभीत हुआ किन्तु वह उन लोगों के समक्ष विवश था । वह कंदुक लेने आश्रम से बाहर आ गया । 
आश्रम के बाहर दैत्य सैनिक छद्म वेश में छुपे हुए उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे । कच जैसे ही आश्रम से बाहर निकला , दैत्य सैनिक उस पर झपट पड़े और उसका वध कर दिया । दैत्य सैनिकों ने पहले भी कच का वध किया था किन्तु शुक्राचार्य ने मृत संजीवनी विद्या से उसे पुन: जीवित कर दिया था । दैत्यों को ऐसा लगा कि कच का वध करने के पश्चात उसका मृत शरीर वहीं पड़ा रह गया था इसीलिए शुक्राचार्य उसे जीवित कर पाये थे । यदि उसका मृत शरीर नष्ट हो जाता तो शुक्राचार्य उसे पुन: जीवित नहीं कर पाते । इस बार उन्होंने कच के शरीर को भी नष्ट करने की योजना बना ली । उन्हों कच के मृत शरीर को भूखे भेड़ियों के सम्मुख फेंक दिया । भूखे भेड़िये कच के शरीर को नोंच नोंच कर खा गये । 

बहुत देर के बाद भी जब कच वापिस आश्रम में नहीं आया तो उसके साथी बहुत चिंतित हुए । उन्होंने आश्रम के बाहर और अंदर दोनों जगह कच को बहुत ढूंढा मगर कच का कहीं अता पता नहीं चला । कच के सब साथी घबरा गये और घबराकर वे आचार्य के पास पहुंच गये । उन्होंने आचार्य को कच के बारे में समस्त बातें बताई तो शुक्राचार्य समझ गये कि दैत्य सैनिकों ने संभवत: कच का पुन: वध कर दिया है । शुक्राचार्य ध्यान मुद्रा में बैठ गए और उन्होंने ध्यान की शक्ति से यह जान लिया कि दैत्य सैनिकों ने कच का वध कर दिया है और उसके मृत शरीर को भेड़ियों के सम्मुख डाल दिया है । भूखे भेड़िये कच का भक्षण कर चुके हैं । 

शुक्राचार्य के समक्ष वही स्थिति उत्पन्न हो गई जो हरियाली तीज के दिन उत्पन्न हुई थी । आज संतोष की बात यह थी कि वहां देवयानी उपस्थित नहीं थी इसलिए उन पर कोई दबाव बनाने वाला नहीं था । "यदि देवयानी को पता चलेगा तो क्या वह मान जाएगी" ? मूल प्रश्न यही था । शुक्राचार्य जानते थे कि कच के लिए देवयानी किसी विक्षिप्त की तरह व्यवहार करती है इसलिए कच को तो जीवित करना ही होगा । यह सोचकर शुक्राचार्य ने मृत संजीवनी विद्या का आह्वान किया और कच भेड़ियों का पेट फाड़कर बाहर निकल आया और पुन: जीवित हो गया । 

श्री हरि 
16.7.23 

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2 Comments

Abhilasha Deshpande

14-Aug-2023 11:11 AM

Nice story

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